तकनीक के इस दौर में गुरु-शिष्य की परंपरा बदल गई है। गुरु भी कुछ बदले हैं। छात्र भी कुछ बदले हैं। फिर भी दोनों के बीच का रिश्ता बहुत नहीं बदला है। पढ़ाई में किताबें आएंगी तो गुरु भी आएंगे ही, लेकिन ‘जिंदगी की किताब’ को पढ़ाने वाले गुरुओं का सम्मान पहले भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा, क्योंकि हर अंधेरे से निकलने के लिए रोशनी तो वही दिखाते हैं।
देश के पहले उप-राष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर को हुआ था। राष्ट्र के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका को वह महत्वपूर्ण मानते थे। उनका विचार था कि वास्तविक शिक्षक वह है, जो छात्रों को आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे। नि:संदेह भारत रत्न डॉ. राधाकृष्णन के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। बीते साल से ही कोरोना महामारी के चलते शिक्षकों के अध्यापन की भूमिका बदली है।
भौतिक कक्षाओं के स्थान पर ऑनलाइन कक्षाओं ने स्थान लिया है। पूरे देश में हुए लॉकडाउन के दौरान छात्रों के समक्ष पठन-पाठन की चुनौती बढ़ी है और इस चुनौती को देश के शिक्षकों ने बखूबी स्वीकार किया है। भौतिक कक्षाओं की दुनिया से बाहर निकलकर ऑनलाइन कक्षाओं में छात्र-छात्राओं को पाठ्यवस्तु को सफलतापूर्वक प्रस्तुत कर अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है। यह बात अलग है कि देश के विभिन्न हिस्सों में गरीबी की मार झेल रहे बच्चों के समक्ष स्मार्टफोन का अभाव रहा। ऑनलाइन कक्षाओं से वे सीधे जुड़ नहीं सके। इस विषम परिस्थिति में कुछ शिक्षक ऐसे भी थे, जिन्होंने कोरोना गाइडलाइन का पालन करते हुए छात्र-छात्राओं के घर जाकर उन्हें भौतिक रूप से पढ़ाया। नि:संदेह समर्पण और त्याग की भावना से बहुत से शिक्षकों ने यह कार्य कर दिखाया है। ऐसे शिक्षक सम्मान के पात्र हैं।
डॉ. राधाकृष्णन का प्रारंभिक जीवन आर्थिक चुनौतियों से भरा रहा, परंतु उन्होंने इसका डटकर सामना किया। आर्थिक परिस्थितियों के खराब होने के बावजूद अध्ययन कार्य को जारी रखा। तमिलनाडु के तिरुतनी ग्राम में जन्मे राधाकृष्णन अपने कॅरिअर के दौरान 17 रुपये कमाते थे और इसी से उनके बड़े परिवार का पालन-पोषण होता था। कभी-कभी परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें पैसे भी उधार लेने पड़ते थे। एक बार वह अपने उधार के पैसे को समय से लौटा नहीं सके तो उन्हें अपने मेडल तक बेचने पड़े, परंतु अध्ययन का कार्य नहीं छोड़ा। 40 सालों तक उन्होंने अध्यापन का कार्य किया। जब दूसरे राष्ट्रपति बने तो कुछ छात्रों ने उनका जन्मदिन 5 सितंबर को मनाने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने छात्रों से कहा, “यदि 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाए तो उनके लिए गर्व की बात होगी।” उनके सम्मान में ही इस दिन को शिक्षक दिवस मनाया जाने लगा। यह क्रम सन 1962 से शुरू हुआ, जो आज भी जारी है। वास्तव में डॉ. राधाकृष्णन भारत के रत्न थे।
एक नैतिक सवाल तो है ही
समाज और सभ्यता के विकास की मूल धुरी शिक्षक हैं। माता-पिता बच्चे को जन्म देते हैं। उस बच्चे में ज्ञान का विकास, माता-पिता नहीं शिक्षक करता है। किसी को डॉक्टर, किसी को इंजीनियर, किसी को वैज्ञानिक, किसी को प्रशासक आदि बनाने का कार्य शिक्षक करता है। विष्णुगुप्त को चाणक्य बनाने वाले उनके शिक्षक ही थे। समाज की दूसरी धारा और भाषा के मुहावरे में शिक्षक को गुरु कहा गया। भारत में देव पूजा से भी पूर्व गुरु पूजा की परंपरा प्रारंभ हुई। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश की श्रेणी में रखा गया। पौराणिक युग से लेकर भक्ति काल तक सभी प्रमुख मनीषियों ने गुरु की वंदना की, उसके वर्चस्व के समक्ष नतमस्तक हो गए।
महर्षि कृष्ण द्वैपायन, जो वेदव्यास के नाम से लोकप्रिय हुए, उन्होंने अपने पुत्र शुकदेव जी को शिक्षा देकर ‘श्रीमद्भागवत‘ का मर्म समझाया। मध्यकाल में मलिक मोहम्मद जायसी, कबीर, सूर, तुलसी आदि ने गुरु की वंदना कर उनके महत्व और आदर्श जीवन का वर्णन किया। आज भौतिकवादी प्रभाव ने मनुष्य के जीवन मूल्यों में अप्रत्याशित परिवर्तन उत्पन्न कर दिया है। सारा सामाजिक तंत्र अर्थ के जाल में उलझ गया है। शिक्षक भी उसी समाज की इकाई है और यह कहने में किंचित भी संकोच नहीं होना चाहिए कि आज का शिक्षक अर्थ को अपेक्षा से अधिक महत्व देने लगा है। यद्यपि सत्य यह भी है कि शिक्षक भले ट्यूशन के छात्रों की गिनती बढ़ाने का प्रयत्न करता हो, किंतु वह उन्हें पढ़ाते समय विषय और अपने नैतिक धर्म को नहीं छोड़ता है। डॉक्टर, वकील, अभियंता अर्थोपार्जन के अनेक मार्ग खोल लेते हैं, लेकिन शिक्षक उत्तरदायित्व का पालन करते हुए विषय को प्रतिपादित करता है। राष्ट्र कल्याण के लिए शिक्षक बनकर अपना उत्तरदायित्व निभाएं, नागरिकों को शिक्षित बनाकर देश को आगे बढ़ाएं, तभी हमारा जीवन सफल और सार्थक होगा।
अभिभावकों का सहयोग भी जरूरी
कोरोना महामारी से छात्रों का बहुत नुकसान हो रहा है। छात्रों के भविष्य को लेकर अभिभावकों की चिंता को देखते हुए शासन ने स्कूलों में छात्रों को प्रवेश की अनुमति दी है। इसके साथ ही अभिभावकों को बताया गया है कि स्कूलों में छात्रों का प्रवेश उनकी अनुमति के अनुसार होगा। अगर वे चाहें तो अपने बच्चों को स्कूल भेजें, यदि नहीं भेजना चाहते तो भी उनकी मर्जी पर निर्भर करता है। स्कूलों में बच्चों को भेजने से पहले अभिभावकों को सहमति पत्र देना होगा। स्कूल आने वाले और न आने वाले, दोनों ही प्रकार के छात्र स्कूल में नामांकित बने रहेंगे। फिलहाल महामारी का असर कुछ कम है, लेकिन तीसरी लहर की आशंका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
ऐसे में अभिभावकों को बहुत ही सोच-विचारकर अपने बच्चों को स्कूल भेजना चाहिए। कोरोना की दूसरी लहर ने भयंकर तांडव मचाया था। इसी को देखते हुए विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ भी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए सहमत नहीं हैं। इसका मुख्य कारण छोटे बच्चों को अभी तक वैक्सीन न लग पाना भी है। शासन द्वारा कोरोना महामारी के बचाव से संबंधित विस्तृत जानकारी दी जाती रही है। इसलिए अब यह कहना अनुचित होगा कि कोरोना से संबंधित लक्षणों के बारे में जानकारी से अब भी कोई अनभिज्ञ है। इसलिए अभिभावक पूरी तरह सजग रहते हुए विद्यालय भेजने से पहले अपने बच्चों को नियमित रूप से कोरोना से संबंधित लक्षणों को ठीक से जांचें।
उसके बाद पूरी तरह स्वस्थ होने पर ही अपने बच्चे को विद्यालय में पढ़ाई के लिए भेजें। रोज सुबह विद्यालय जाने से पूर्व और विद्यालय से घर आने के बाद बच्चों की जांच, जैसे- सूखी खांसी, बुखार, थकान/ कमजोरी, सांस लेने में दिक्कत के बारे में बच्चे से पूछकर पहचान आवश्यक रूप से करें। यदि फिर भी कोई अभिभावक लक्षणों से परिचित नहीं है तो शिक्षकों अथवा अन्य कई माध्यमों से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। जल्दबाजी में उठाया हुआ कदम, स्वयं और दूसरों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। अभिभावकों को निश्चित तौर पर सजग रहने की आवश्यकता है। उनका सकारात्मक सहयोग विद्यालय में शिक्षण प्रक्रिया को निरंतर बनाए रखने में महत्वपूर्ण कदम होगा।