
भारत में पहली बार कृत्रिम बारिश कराए जाने की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। इसकी शुरुआत के लिए देश की राजधानी दिल्ली को चुना गया है। बताया गया है कि दिल्ली सरकार 4 जुलाई से 11 जुलाई के बीच कृत्रिम वर्षा का ट्रायल करने की मंजूरी दे सकती है। दिल्ली की भाजपा सरकार में पर्यावरण मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा के मुताबिक, इसके जरिए दिल्ली की दूषित हवा को साफ करने की संभावनाओं को तलाशा जाएगा।
ऐसे में यह जानना अहम है कि आखिर दिल्ली में कृत्रिम बारिश कराने से जुड़ी पूरी योजना क्या है? इसे कैसे और किस तकनीक के जरिए कराया जाएगा? यह तकनीक कितनी प्रभावी है और इसकी चुनौतियां क्या हैं? दुनिया के किन देशों में कृत्रिम बारिश कराई जा चुकी है और इसका नतीजा क्या रहा है? …
दिल्ली में बीते कई साल से प्रदूषण का प्रकोप दर्ज किया जा रहा है। खासकर मानसून सीजन के खत्म होने और ठंड के मौसम के दौरान दिल्ली का वायु गुणवत्ता सूचकांक काफी ऊपर रहता है। दिल्ली की हवा में पीएम 2.5 और पीएम 10 (पीएम यानी पर्टिकुलेट मैटर) कणों की संख्या बढ़ जाती है, जो कि श्वास नली के जरिए लोगों के शरीर में घुसकर उन्हें बुरी तरह प्रभावित करता है। इन परिस्थितियों के मद्देनजर दिल्ली में लोगों की सुरक्षा के लिए सरकार को ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान (ग्रैप) लागू करना पड़ता है। प्रदूषण को कम करने और लोगों को बचाने की इस योजना को प्रदूषण की गंभीरता के आधार पर चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाता है।
दिल्ली में वायु प्रदूषण की इसी समस्या से निपटने के लिए कृत्रिम वर्षा कराने की योजना बनाई गई। हालांकि, इसके बारे में पहली बार जिक्र आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार के दौरान किया गया था। 2023 में दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने केंद्र सरकार को एक चिट्ठी लिखकर मांग की थी कि क्षेत्र में कृत्रिम वर्षा कराने की अनुमति दी जाए। राय ने आईआईटी कानपुर के विशेषज्ञों और केंद्रीय एजेंसियो के अधिकारियों की एक बैठक भी बुलाने की मांग की थी।
दिल्ली में इस साल भाजपा की सरकार बनने के बाद से ही प्रदूषण खत्म करने के लिए कृत्रिम वर्षा को लेकर चर्चाएं शुरू हो गई थीं। खुद दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने इससे जुड़े एलान किए। हालांकि, अब दिल्ली में कृत्रिम वर्षा कराने को लेकर संभावित तारीखों का भी एलान कर दिया गया है।
कृत्रिम बारिश क्या है और यह कराई कैसे जाती है?
- जब असक्रिय बादलों पर केमिकल डाला जाता है तो वातावरण में मौजूद जलीय वाष्प (वॉटर वेपर्स) छोटे-छोटे कणों के आसपास जमा हो जाते हैं और बूंदों के तौर पर इकट्ठा होते हैं। यानी यह नमक के कण इन बूंदों के लिए एक अतिरिक्त न्यूक्लियस (केंद्र) का काम करते हैं।
- इस न्यूक्लियस की खासियत यह होती है कि यह एक के बाद एक वाष्प को बूंदों के तौर पर अपने पास इकट्ठा कर लेता है। यह बूंदें जैसे-जैसे बढ़ती हैं और भारी होती हैं, वैसे ही इनका टकराव बढ़ता है। इसी कारण बादल सक्रिय होते हैं और बारिश होती है।
इतना ही नहीं कृत्रिम बारिश हर माहौल में नहीं कराई जा सकती। इसके लिए खास तरह के बादल और बादलों का किसी क्षेत्र पर घेराव भी जरूरी है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, कृत्रिम बारिश के लिए जिन भी बादलों को सक्रिय करना है, उनमें पहले से ही कुछ नमी यानी जलीय वाष्प मौजूद होना चाहिए। इसके अलावा जिस क्षेत्र पर बारिश कराई जानी है, वहां अच्छी खासी संख्या में बादलों का होना और इनका बड़े द्रव्यमान में होना भी एक शर्त है।
दिल्ली के पर्यावरण मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा के मुताबिक, में 4 जुलाई से 11 जुलाई के बीच कृत्रिम वर्षा को लेकर ट्रायल कराया जा सकता है।
दिल्ली सरकार की तरफ से चलाए जा रहे इस प्रोजेक्ट में आईआईटी कानपुर और मौसम विभाग पुणे (आईएमडी-पुणे) अहम भूमिका निभा रहे हैं। जहां आईआईटी कानपुर की रिसर्च से कृत्रिम बारिश कराने और इसके प्रभाव को समझने में मदद मिलेगी, तो वहीं आईएमडी पुणे ने उन स्थितियों के बारे में बताया, जब कृत्रिम बारिश कराने का सबसे उपयुक्त समय है।
क्लाउड सीडिंग का तरीका फिलहाल दुनिया के कई देश आजमा रहे हैं। यह मध्यम स्तर पर प्रभावी माना जाता है। स्टडीज की मानें तो इस तकनीक के जरिए किसी भी क्षेत्र में बारिश या बर्फबारी को पांच से 15 फीसदी तक बढ़ाया जा सकता है। हालांकि, स्थितियां अनुकूल होना भी जरूरी है।
- संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की मौसम से जुड़ी विशेषज्ञ एजेंसी वर्ल्ड मीटिरियोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन (WMO) के मुताबिक, क्लाउड सीडिंग के जरिए बारिश शून्य से 20 प्रतिशत तक बढ़ाई जा सकती है।
- इसी तरह 2003 में अमेरिका की एक गैर-लाभकारी संस्था नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस की स्टडी में सामने आया था क्लाउड सीडिंग की प्रभावशीलता काफी अनिश्चित है।
दिल्ली में प्रदूषण के लिए मुख्य तौर पर दो तरह के प्रदूषक जिम्मेदार हैं- पीएम 2.5 और पीएम 10। आमतौर पर बारिश के मौसम में यह कण पानी के साथ मिलकर जमीन पर बैठ जाते हैं। हालांकि, बारिश के दौरान ओजोन और सल्फर जैसे प्रदूषकों पर खास असर नहीं पड़ता। आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर मणिंद्र अग्रवाल, जो कि कृत्रिम बारिश के इस कार्यक्रम का नेतृत्व कर रहे हैं के मुताबिक, दिल्ली-एनसीआर में इस प्रोजेक्ट के जरिए अस्थायी राहत मिल सकती है। यह राहत करीब एक हफ्ते तक प्रभावी रह सकती है।
पर्यावरण पर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य और आईआईटी कानपुर के फैकल्टी सच्चिदानंद त्रिपाठी ने कुछ समय पहले इस प्रोजेक्ट को लेकर एक संस्थान से बातचीत में बताया था कि सर्दियों के मौसम में दिल्ली में उस तरह के बादल नहीं होते, जिनकी सीडिंग की जा सके। हालांकि, पश्चिमी विक्षोभ दिल्ली के ऊपर कई बार ऐसे बादलों का सिस्टम बना देता है। इसके बावजूद वैज्ञानिकों को यह पता लगाना होता है कि अगर वे कृत्रिम बारिश कराएंगे तो बादलों में पानी कितना है, उनकी ऊंचाई क्या है, आदि। ऐसी स्थिति में भारत का मौसम विभाग सही स्थितियों का पता लगाने में मदद कर सकता है।
मौजूदा समय में दुनिया के कई देश क्लाउड सीडिंग के जरिए बारिश कराने की तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनमें ज्यादातर देश वह हैं, जहां सूखाग्रस्त इलाकों तक पानी पहुंचाना मुश्किल है।
1. ऑस्ट्रेलिया
ऑस्ट्रेलिया में क्लाउड सीडिंग से जुड़े प्रयोग 1947 से ही शुरू हो गए थे और यह आज तक जारी हैं। बताया जाता है कि स्नोई हाइड्रो लिमिटेड कंपनी अब इसी तरह से बर्फीली पहाड़ियों पर कृत्रिम बर्फबारी कराती है। इसके जरिए ऑस्ट्रेलिया के 2110 वर्ग किमी इलाका कृत्रिम बर्फबारी से कवर होता है।
मौसम प्रणाली में छेड़छाड़ का सबसे बड़ा पैरोकार चीन रहा है। यहां कृत्रिम बारिश के जरिए बड़े क्षेत्र में सूखे से निपटने में मदद मिलती है। इसके अलावा चीन में जंगलों में लगने वाली आग से निपटने के लिए भी कृत्रिम बारिश का सहारा लिया जाता है। इतना ही नहीं कई बार सैन्य परेड के दौरान बारिश की संभावना को देखते हुए इसे रोकने की भी व्यवस्था की जाती है। कुछ ऐसी ही व्यवस्था चीन ने 2008 के ओलंपिक खेलों के दौरान वर्षा को रोकने के लिए भी की थी। रिपोर्ट्स के मुताबिक, इन तकनीक की वजह से चीन की यांग्त्जे नदी क्षेत्र में 8.56 अरब मीट्रिक टन अतिरिक्त वर्षा दर्ज की जा चुकी है।
3. यूरोप
स्पेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे यूरोपीय देशों में क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल सिर्फ अतिरिक्त वर्षा के लिए ही नहीं किया जाता, बल्कि इससे ओलों के गिरने की समस्या से भी निपटा जाता है। फ्रांस में इसके लिए अलग एजेंसी है, जो ओलों के गिरने का सही अनुमान लगाकर क्षेत्र में पहले ही क्लाउड सीडिंग कर देता है, जिससे ओले बन नहीं पाते। फ्रांस का तर्क है कि अगर वह क्लाउड सीडिंग के जरिए ओलों का बनना नहीं रोकता है तो ओले कई बार छोटी-छोटी गोल्फ बॉल का आकार ले लेते हैं और फसलों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं।
4. मलयेशिया
इसी तरह मलयेशिया में भी इस तकनीक का इस्तेमाल धुंध या स्मॉग को हटाने के लिए होता है। एयरपोर्ट और बड़े शहरों में ज्यादा औद्योगिक गतिविधियों की वजह से कई बार प्रदूषण इतना बढ़ जाता है कि स्मॉग की स्थिति पैदा हो जाती है। ऐसे में कृत्रिम बारिश इस समस्या से निपटने में मदद करती है।
वैज्ञानिकों और रिसर्चर्स का मानना है कि कृत्रिम वर्षा एक तरह से मौसमी प्रणाली और पर्यावरण के साथ खेलने वाली बात है। उदाहरण के तौर पर- बादलों को सक्रिय करने के लिए जो नमक- सिल्वर आयोडाइड इस्तेमाल होता है, वह अगर यह नमक मृदा और पानी में ज्यादा मात्रा में मिल गया तो इससे पर्यावरण और कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो सकते हैं।
पर्यावरण मामलों से जुड़ी एजेंसी- KISTERS के वरिष्ठ मौसम विज्ञानी जोहान जैक्स के मुताबिक, मौसमी प्रणाली के साथ छेड़छाड़ के गंभीर परिणाम हो सकते हैं, क्योंकि यह व्यवस्था सीमाओं को नहीं जानती। अगर आप सावदान नहीं रहे और इस तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाया तो पड़ोसी देशों तक की स्थिति बिगड़ सकती है, क्योंकि एक जगह का मौसम दूसरी जगह के मौसम को जैसे को तैसा प्रभावित करता है।
अगर क्लाउड सीडिंग के जरिए किसी एक क्षेत्र में बारिश कराई जाती है तो वहां उस जगह के जलीय वाष्प भी इकट्ठा हो जाते हैं, जहां बारिश होना मौसमी आधार पर पहले तय था। ऐसे में किसी एक क्षेत्र में अधिक बारिश कराकर दूसरे क्षेत्र को समस्या में धकेला जा सकता है।