भारत में आर्थिक विकास की रफ्तार भले ही तेज हो, लेकिन उससे लाभ उठाने वाले लोगों का दायरा सीमित होता जा रहा है।
क्रेडिट सुईस वेल्थ रिपोर्ट और फोर्ब्स इंडिया के नवीनतम विश्लेषणों के अनुसार भारत में पिछले एक दशक में अरबपतियों की संख्या 300% से अधिक बढ़ी है, जबकि 50% से ज्यादा जनसंख्या की वास्तविक आय या तो स्थिर रही है या घट गई है। यह विषमता देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए बड़ी चेतावनी है, जिसमें आर्थिक प्रगति का लाभ बहुत कम लोगों तक सिमटता जा रहा है। ऑक्सफैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट के अनुसार भारत में कुल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा करीब 11.6 लाख करोड़ डॉलर केवल 1 प्रतिशत अमीरों के पास है। इसी तरह ग्लोबल इनइक्वैलिटी रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत के शीर्ष 10% लोग देश की कुल आय का लगभग 57% हिस्सा प्राप्त करते हैं, जबकि निचले 50% के हिस्से केवल 13% आय आती है।
नोबेल विजेता थॉमस पिकेटी के अनुसार अगर आय और संपत्ति के अंतर को नहीं रोका गया, तो लोकतंत्र भी केवल धनी वर्ग का उपकरण बनकर रह जाएगा। द प्राइस ऑफ इनइक्वैलिटी के लेखक जोसेफ स्टिग्लिट्ज का कहना है कि जब समाज के अधिकतर संसाधन केवल कुछ लोगों के हाथ में होते हैं तो बाकी जनसंख्या हाशिए पर चली जाती है और आर्थिक अस्थिरता स्थायी हो जाती है।
क्रेडिट सुईस वेल्थ रिपोर्ट कहती है कि भारत में संपत्ति की असमानता की प्रवृत्ति आजादी के तुरंत बाद से ही देखने को मिली जब जमींदारी उन्मूलन जैसे सुधार तो हुए, लेकिन उद्योग, व्यापार और राजनीतिक पहुंच वाले सीमित तबके को ही आर्थिक लाभ मिलते रहे।
उदारीकरण और पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था
1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने निजी पूंजी, कॉरपोरेट घरानों और वैश्विक निवेश को खुला मंच दिया। लेकिन इसका सीधा लाभ उच्च तकनीकी, पूंजी और शिक्षा वाले वर्ग को मिला न कि श्रमिक या ग्रामीण समुदायों को।
शेयर बाजार और रियल एस्टेट
पिछले एक दशक में बीएसई-सेंसेक्स में जबरदस्त उछाल देखा गया, जिससे अमीरों की संपत्ति तेजी से बढ़ी। वहीं, 50% से अधिक आबादी ऐसी है जिसकी आय श्रम, कृषि और असंगठित क्षेत्र से आती है, जहां वेतनवृद्धि लगभग नगण्य रहा।
